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SHIV KAWACH Print This Article
SHIV KAWACH
  • Kavita Sharma
कवच का पाठक साधक के शरीर की रक्षा के लिए होता है । यह शिव कवच भगवान शिव की कृपा प्रदान करता है और सभी प्रकार के  शारीरिक कष्टों और मारकेश की दशा से बचता है । नित्य इस कवच का 1  या 3  बार पाठ करना शुभ रहता है ।

        ॥ श्रीशिवकवचम् ॥
    
      नारद उवाच-
      शिवस्य कवचं ब्रूहि मत्स्य राजेन यद्धृतम् ।  नारायण महाभाग श्रोतुं कौतूहलं मम ॥ १॥

      श्रीनारायण उवाच-
      कवचं शृणु विप्रेन्द्र शङ्करस्य महात्मनः ।  ब्रह्माण्ड विजयं नाम सर्वाऽवयव रक्षणम् ॥ २॥
      पुरा दुर्वाससा दत्तं मत्स्यस्य राजाय धीमते ।   दत्वा षडक्षरं मन्त्रं सर्व पाप प्रणाशनम् ॥ ३॥

      स्थिते च कवचे देहे नास्ति मृत्युश्च जीविनाम् । अस्त्रे-शस्त्रे-जले-वह्नौ सिद्धिश्चेन्नास्ति संशयः ॥ ४॥
      यद्धृत्वा पठनात् बाणः शिवत्वं प्रापलीलया ।  बभूव शिवतुल्यश्च यद्धृत्वा नन्दिकेश्वरः ॥ ५॥

      वीरश्रेष्ठो वीरभद्रो साम्बोऽभूद् धारणाद्यतः ।  त्रैलोक्य विजयी राजा हिरण्यकशिपुः स्वयम् ॥ ६॥
      हिरण्याक्षश्च विजयी चाऽभवद् धारणाद्धि सः ।  यद्धृत्वा पठनात् सिद्धो दुर्वासा विश्व पूजितः ॥ ७॥

      जैगीषव्यो महायोगी पठनाद् धारणाद्यतः ।  यद्धृत्वा वामदेवश्च देवलः पवनः स्वयम् ॥ ८॥
      अगस्त्यश्च पुलस्त्यश्चाऽभवत् विश्वपूजितः ॥ ९॥

      ॐ नमः शिवायेति च मस्तकं मे सदाऽवतु ।  ॐ नमः शिवायेति च स्वाहा भालं सदाऽवतु ॥ १॥
      ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं शिवायेति स्वाहा नेत्रे सदाऽवतु ।  ॐ ह्रीं क्लीं हूं शिवायेति नमो मे पातु नासिकाम् ॥ २॥

      ॐ नमः शिवाय शान्ताय स्वाहा कण्ठं सदाऽवतु ।  ॐ ह्रीं श्रीं हूं संसार कर्त्रे स्वाहा कर्णौ सदावतु ॥ ३॥
      ॐ ह्रीं श्रीं पञ्चवक्त्राय स्वाहा दन्तं सदावतु ।  ॐ ह्रीं महेशाय स्वाहा चाऽधरं पातु मे सदा ॥ ४॥

      ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं त्रिनेत्राय स्वाहा केशान् सदाऽवतु ।  ॐ ह्रीं ऐं महादेवाय स्वाहा वक्षः सदाऽवतु ॥ ५॥
      ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं मे रुद्राय स्वाहा नाभिं सदाऽवतु ।  ॐ ह्रीं ऐं श्रीं श्रीं ईश्वराय स्वाहा पृष्ठं सदाऽवतु ॥ ६॥

      ॐ ह्रीं क्लीं मृतुञ्जयाय स्वाहा भ्रुवौ सदाऽवतु ।  ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ईशानाय स्वाहा पार्श्वं सदाऽवतु ॥ ७॥
      ॐ ह्रीं ईश्वराय स्वाहा चोदरं पातु मे सदा ।        ॐ श्रीं ह्रीं मृत्युञ्जयाय स्वाहा बाहू सदाऽवतु ॥ ८॥

      ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ईश्वराय स्वाहा पातु करौ मम ।  ॐ महेश्वराय रुद्राय नितम्बं पातु मे सदा ॥ ९॥
      ॐ ह्रीं श्रीं भूतनाथाय स्वाहा पादौ सदाऽवतु ।     ॐ सर्वेश्वराय शर्वाय स्वाहा पादौ सदाऽवतु ॥ १०॥

      
      प्राच्यां मां पातु भूतेशः आग्नेय्यां पातु शङ्करः । दक्षिणे पातु मां रुद्रो नैॠत्यां स्थाणुरेव च ॥ ११॥
      पश्चिमे खण्डपरशुर्वायव्यां चन्द्रशेखरः ।  उत्तरे गिरिशः पातु चैशान्यां ईश्वरः स्वयम् ॥ १२॥

      ऊर्ध्वे मृडः सदा पातु चाऽधो मृत्युञ्जयः स्वयम् । जले स्थले चाऽन्तरिक्षे स्वप्ने जागरणे सदा ॥ १३॥
      पिनाकी पातु मां प्रीत्या भक्तं वै भक्तवत्सलः ॥ १४॥

                                      ॥ फलश्रुतिः ॥

      इति ते कथितं वत्स कवचं परमाऽद्भुतम् ॥ १५॥

      दश लक्ष जपेनैव सिद्धिर्भवति निश्चितम् ।   यदि स्यात् सिद्ध कवचो रुद्र तुल्यो भवेद् ध्रुवम् ॥ १६॥
      तव स्नेहान् मयाऽऽख्यातं प्रवक्तव्यं न कस्यचित् ।   कवचं काण्व शाखोक्तं अतिगोप्यं सुदुर्लभम् ॥ १७॥

      अश्वमेध सहस्राणि राजसूय शतानि च ।  सर्वाणि कवचस्यास्य फलं नार्हन्ति षोडशीम् ॥ १८॥
      कवचस्य प्रसादेन जीवन्मुक्तो भवेन्नरः । सर्वज्ञः सर्वसिद्धेशो मनोयायी भवेद् ध्रुवम् ॥ १९॥

      इदं कवचं अज्ञात्वा भवेत् यः शङ्करप्रभुम् । शतलक्षं प्रजप्तोऽपि न मन्त्रः सिद्धिदायकः ॥ २०॥
      
      ॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्ते पुराणे गणपतिखण्डे  ब्रह्माण्डविजयी नाम श्रीशङ्करकवचस्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥

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