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Narayandas Ji Maharaj Triveni Dham Print This Article
Narayandas Ji Maharaj Triveni Dham
  • Astrologer Peeyush Vashisth Jaipur

 Narayandas Ji Maharaj Triveni Dham

Maharaj Ji has a huge ashram in Triveni near shahpura in Jaipur district. There are lot of devotees who devote every year in the ashram. It is said that Narayandas ji Maharaj has lot of sidhies. He is very prominent siant in the Rajasthan and many people associated with Maharaj Ji. Narayandas Ji Maharaj is a real sage and done his pnence in early age. His guru Maharaj Ji was also very famious and sidh saint who tough Narayandas ji Maharaj Ji and gave him guru mantra. 1008 kund hawan is very famous at Triveni Dham which is done by Narayandas Ji Maharaj. In this

 

 à¤¶à¥à¤°à¥€à¤¨à¤¾à¤°à¤¾à¤¯à¤£à¤¦à¤¾à¤¸à¤œà¥€ महाराज
 
 
श्रीचारायपादासजी महाराज की जन्ममूमि ग्राम चिमनपुरा गौड़ ब्राह्मण परिवार में जन्म हुआ । पिता श्वीसामदयाल जी शर्मा एव माता श्रीमती भूरी बाई वि.सं.1984 शार्क 4349 आश्चिन बुदी सप्तमी शनिबार रोहिण नक्षत्र मे जन्ग कर्क लग्न में सूर्य कन्या राशि में चन्द्रमा वृष का मंगल कन्या का बुध कन्या राशि में गुरु मीन राशि का शुक्र सिंह राशि में शनि वृश्चक राशि का राहु मिथुन राशि में कंतु धनु राशि में हर्बल र्मश्र्व और लेप सिंह राशि में ऋते मिथुन राशि का है । आप महापुरुष तो हैं ही ग्रह गोचर के हिसाब से भी अवतार पुरुष है ।


नगन डाक्रोर खाक चौक और त्रिवेणी धान खालसा की स्थापना तथा दस्तावेज दिसं. 2059 दिनांक 25 अगस्त 2003 से नासिक महाकूम्भ पर्व में हुई । महाराजश्री का श्री२तोजीद्वानावार्य पदामिषेक बिसमुँ 2062 दिनांक है जनवरी 2004 ने तीनो अनी अखाडों दो श्रीमती सहित भारत के समस्त त्तन्त समाज दो द्वारा अहमदाबाद गुजरात मे हुआ । महाराजश्री ने प्राणीमात्र बो हितार्थ अपना जीवन समर्पण कर दिया जैसा कि वर्तमान में ऐसे महापुरुष न तो दूरारा है और न भविष्य से होने को सम्भावना है । जिन्होंने जहाँ जिस वस्तु का अभाव देखा वहीं यहीं वस्तु à¤¸à¥à¤²à¤­ करवा दी । महाराजश्री ने शिक्षार्थ विद्यालय भवन बनवाये । रोग मुक्तार्थ चिकित्सालय एबं भगवत उपासनार्थ प्राचीन मन्दिरों का जिणोंद्वार करवाया । श्रीयनेशत्यादासजी महाराज और श्रीबाबाजी महाराज के गुरुमाइयों की भाँति प्रगाढ़ प्रेम था । आपस में एक दूरारे दो बिना अधिक समय नहीं रह सकते ये । श्रीनारायणदासजी महाराज दो प्रति दोनों महापुरुषों का अगाध वात्सल्य स्नेह था । श्रीकोराल्यादासजी महाराज महाराजक्षी कं साघिक गुरु कं स्वरूप में थे। उन्होंने श्रीमहाराजजी को अध्यात्म राम रक्षा एवं विश्व मोहन श्रीनाख्यावाशवि, सिध्द कराने à¤¨à¥‡ पूर्णरूप कृपा अनुग्रहित रहें । आपने अपना स्थान जं। रेलवे बिशन के पास जयपुर है हैं । उसको श्रीमहाराजजी के नान लिन्द्र दिया था । महाराजश्री ने जिसका जिणोंद्वार करकं श्रीरामशरणदासजी महाराज को महन्त बना दिया । जो सुचारु रूप से गो-सेवामगवत सेदा और सन्त सेवा बनाए रहे हैं ।

श्रीयनेशत्चावासजी महाराज दिसं. 2028 पौष वुदी अमावस्या मंगलवार को साकंत धाम पधारे । उनके बाद ने श्रीख्याराजजी  à¤¨à¥‡ श्रीप्रेमदासजी को महन्ताइं दी । फिर विना 2038 पीषसुदी सप्तमी को उनका साकंत धान हो गया । उनले उपरान्त दिसं. 2038 माघ चुदी नवमी सोमवार को श्रीरानशज्यादासजील्लापुस चेला ओहनुमानदासजी) को महन्ताइं दी ।
 
। । श्रीराम महायज्ञ त्रिबेणीघाभ में ।।
 
महत् पुरुषों दो चरित्र भी महान् ही होते हैं । वे जिस कार्य को करते हैं उनका हर्ष और कोप दोनो ही व्यर्थ नहीं होते । वे निग्रह-अनुग्रह दोनों में ही समर्थ होते हैं । परोपकार कं लिए सब कुछ कर डालना यह तो महाराजश्री का स्वाभाविक स्वभाव ही हैं। उर्म-शोकमान--अपमान ने सर्वत्र समभाव से रहकर परमार्थिक कार्य करना यही तो उनका दिव्य लक्षण है…
 
त्तदयं हद्रचं यस्य आषित सत्य भूषितम्।
काश: परहिंतो वस्य कलिस्तस्य र्क्सति किमृ।।

जिनके हृदय में प्राणिमात्र के प्रति दयाभाव हैवाणी प्रिय ओंर सत्य से विभूतियों है और शरीर परोपकार कं लिए समर्पित है फिर उन महान पुरुषों का कलि कर ही क्या शत्रुता है? उनके लिए सदा सत्ययुग ही हैं । वे कलिकाल में गी सत्ययुग उपस्थित कर देते हैं । अभूतपूर्व श्रीराम महायज्ञ पा' भी आहा दृत्स्थात्मय' जिसमें इस कलिकाल में भी सत्ययुग का सा दृश्य उपस्थित हो गया था । चैत्र सुदी एका बुधवार दिसं. 2030 से प्रारम्भ होकर चैत्र सुदी दशमी गुरुवार को सम्पन्न हुआ । यह अलौकिक श्रीराम महायज्ञ इस कलिकाल ने ऐसा पहला यज्ञ था दयोंकि पुराणों के अनुसार जिस प्रकार से राजा श्येत्तकीं तो यज्ञ में अस्तित्व को अजीर्ण हुआ थाउसी प्रकार से इस महायज्ञ में भी अग्निदेव कॉ अजीर्ण हो गया था। इस यज्ञ महोत्सव में अठारह महापुरणड़ाठारह उपपुराण, श्रीमत्णागवत, श्रीमत्भगतत्गीता, श्रीमत् बाठमीकि रामायणश्वीरामचरित्तमानस आदि ग्रक्यों का पठन और अखण्ड श्रीराम नाम संकीर्तनमांगौत्तमय श्रीरामचरितमानस श्रीरत्मलीलाझीरासलीलादि यज्ञ प्रारम्भ से पूर्णाहुति गांव' हजारों श्री संख्या में ऋत्वज ये जो यत्र…त्तत्र सभी प्रदेशों से साये ये ।
विधि होजस्य यज्ञस्य सद्य: वतांविलश्यत्ते ।
 
बिधिहीन यज्ञ अनुष्ठान करने वाले यजमान एवं राष्ट्र तत्काल नष्ट हो जाते है । हस बात को ध्यान में रखकर महाराजश्री कार्यकर्ताओं को बार-बार सचेत कते रहते थे कि यज्ञ से किसी भी प्रकार से कोई त्रुटि न रहने पाये । यज्ञ सामग्री की शुद्धि यया चार महिनों पहले से ही करने लग गये थे ।
 
विधिहीजअसृष्टाझं मंत्र होजअदक्षिणान् ।
श्रद्घा बिरहितं यज्ञ ताअसं पष्टिचक्षते ।।
शास्त्र बिधि से हीन, अन्नदात से रहित, बिना मज्यों बो, बिचा दक्षिणा कं और बिना अद्धा के जिये जाने वाले यक्ष को तामस यक्ष कहते हैं । इस यज्ञ में इन सब बातों का अनाथ था । सभी कार्य शास्त्र पद्धति से ही होते थे । सभी लोगों ने अटूट श्रद्धा थ्री । भोजनालय दिन-रात्त ठी चलते ये 1 सभी के लिए द्वार खुला था } मंत्रों का कार्य मंत्रों से ही होता था । पण्डित ही नहीं यजमान भी मंत्र दीक्षित ही लिए गये थे । दक्षिणा का तो जाना ही क्या…

तेहि अवसर जी जेहि विधि आवा ।
द्रीन्ह भूप जो जेहि अन आवा । ।
अन संतो से सबन्हि के जहँ तहँ देहि असीस ।

जो जिस योग्य था उसको उसी योग्यता से सम्मानित जिया गया था । सभी प्रस्रत्र मन से महाराजश्री की जा जयकार करते थे । उस समय दस रूपया सेर पवला शुद्ध गाय-मधि का घृत निलता था । गांवों ने तो अन्य क्रिमयादि घृत को जानते ही नहीं थे अथवा हन घीयों का उस समय ने जन्म भी नहीं हुआ आ । प्रत्येक कुण्ड ने डाई मन घृत से अघिक धी होगा गया था । प्रधान कुण्ड में तो अखण्ड धारा बह रही थी । धी की बहुल्यत्ता से अग्निदेव को अजीर्ण हो गया । महाराजश्रो को पस्यार्थि कार्य श्री प्रेरणा सदृगुरुदेव श्रीभगवान-नि महाराज स्वयं महान्दि व्य अथवा अदृश्य ने देते हैं । महाराज़श्री जन्ममूमि चिमनपुरा में मार्गशीर्ष सुदी पंचमी यि.सं.2०29 उस दिन श्रीठाकुंरजी का वार्षिक महोत्सव था । प्रात: बह्ममुहृहाँ में जाग्रत अवस्था में श्रीसदगुरुदेव कं दर्शन होते हैं ।श्वी२।म महायज्ञ के द्वारा श्रीठाकूरजी का राजन करने की आज्ञा देते हैं । महाराज़श्री दूसरे दिन यज्ञ चौ लिए चन्दा करने कं लिए बजवप्ताबगालझरिगादुर्मापुना आदि जाल वापस लौट रहे ये । मुरादाबाद रोड़ पर गड मुक्तंश्वर नाम का बड़। ही रमणीक स्थान है । वहां रात्री में विश्राम कर रहे थे । वही ब्रह्यमुहूर्त का समय थामहाराजओ को स्वप्न हुआ जि अतिबिशाल भव्य यज्ञ मण्डप श्री रचना हुई । यथा बिधि यज्ञ स्रम्यन्न हुआ। अन्त से अपने आप अग्नि प्रकट हुई और यज्ञ मण्डप जलकर पावन विभूति कं नाप में परिणित हो गया । महाराजश्री तुरन्त ही उठ बैठे और यह दृष्टान्त सब को सुनाया किन्तु सबने इसको सपना ही समझा जिन्तु यह सपना तो भांवेव्य में ज्यो का त्यों सत्य साबित हुआ । महाराजश्री त्रिवेणी धान आये और यक्ष तो कार्य ने लग गये । यज्ञ का कार्य यथा बिधि होने लगा । यज्ञ मण्डप सात मंजिल का बना आ । उसकी ऊँचाई 75 फीट थी । यह अलौकिक शोभा से युक्त था । उस यज्ञ मण्डप क्री रचना को देखकर लोगों की इच्छा हुई कि यज्ञ सम्पूर्ण होने के बाद भी दीर्ध समय तक हस को सुरक्षित रखा जाये । उसकी सुरक्षा के लिए दो आग बुझाने बाली दमकले और बहुत से पुलिस के जवान भी रख दिये ये । जिन्तु उस अलौकिक सामग्री श्री ये लौकिक साधन रक्षा न बनों राकं । सभी कार्यं यथा योग्य सम्यन्न हुए । यज्ञ यहि पूर्णाहुति दिन दो रस्ता बारह बसों हुई । रात्री कं साढे नो बजे अग्नि कोण में से अग्नि प्रकट हुई और झटपट  à¤¬à¥à¤¨à¥‡ लगी ।  à¤ªà¤¦ पाताल सीस अज थाम 1 के अनुसार विराट रूप अग्निदेव स्वरूप पृथ्वी से आकाश कॉ छूने लगे 1 मात्र आठ मिनिट से ही यक्ष मण्डप की सीमा ने एक हनुभतध्वज को छोड़कर सभी वस्तु इंरिपूबत्लीताग्वेपीलल क्री कोठियाँ और बतंनादि राब को अग्निदेव भक्षण कर गये । आश्चर्य तो यह हुआ जि यज्ञ सीमा दो अन्दर एक लोहे की कील भी नहीं को । यज्ञ मण्डप कं ऊपर हनुमत ध्वज फहरा रहा था 1 उसका बाँस दण्ड तो जल गया और ध्यान उड़कर पास में ही गंगा मे जा गिरा । यह यक्ष यि.२नं.2०30 ने नवरात्रों ने तो दिन का हुआ था । इसके बाद में महाराजश्रो के तत्वाधान से यज्ञों श्री एक दिव्य श्रृंखला ही चल पडी ।

श्रीधिन्धुमहायज्ञानुशन धोला में-


ग्राम धौला तहसील जमवारामगढ़ जिला जयपुर ने स्थित है । यह ग्राम बहुत पुराना है । इसमें बड़े-बडे भामाशाह और भी सभी बनों दो लोग रहा करते थे । अब तो बहुत के लोग विदेशों में चले गये हैं । उनके स्थान खाली पडे हैं या जीर्ण-शीर्ण अवस्था में आ गये हैं । बहुत पुराना रप्रेड़। हो जाने पर उस ग्राम में रिद्धिसिद्धि एबं वरक्त नहीं होती । वि.सं.2०3० की वात्त है । ग्रामवासियों के ऊपर यहीं भारी विपत्ति आई । सान में जनसंख्या-पशुसंख्या और व्यवसाय आदि वृद्धि के बजाय घटती ही जाती थी । लोग दुखी होकर दूसरे शहरों से बसने लगे । ग्रामवासी जो भी पशुपालत्ते थे उसके बच्चा-बच्ची नहीं होता आ और दूसरे ग्रामवासी कां बेचने पर अन्य ग्राम में जाकर ब्याने लगते ये । ग्राम में वृक्ष लगाने पर उस वृक्ष के पाल नहीं लगता था । यहीं स्थिति मनुष्यों की भी थी । कोई भी व्यक्ति सुख नहीं रह सकता था । एक दिन महाजन जीनाफ्तहायजीश्री२गेहनन्नालजी आदि जो महाराजश्री के परम शिष्यों में से एक थे । सभी ग्रामवासियों का दुख सुनाने के लिए सदगुरुदेव महाराजश्री वो पास त्रिवेणी धाम ने आये । न्निजदुख सूख सब क्तुरुहिं सुजाधऊँ । (रा ) और उगे ग्रामवासियों की विपत्तियों श्रीसदगुरुदेव को सुनाई । सेवकों का दुख सुनकर महाराजश्री द्रवोत हो गये । कुछ समय में स्वस्थ होकर अघने श्रीगुरु भगवान का ध्यान कर बोले…श्रीगुरुदेव ने मुझे प्रसंगवश एक अनुष्ठान बताया था ।उस अनुष्ठान को करने से पुराने खेडा का पुत जीर्णोद्धार हो जायेगा और फिर से ग्राम की प्रगति एवं सुखसप्पत्ति से वृद्धि होने लगेगी । ग्रामवासियों ने अपना जन्म सुफल माना और कहा कि आप जो भी आज्ञा देदेरिउत्तका हम सभी लौग सिर से पालन करेंगे ।

मातु पितु शुर प्रभु के बानो ।
बिनहिं विचार करिअ शुअ जाती ।।
तुन सब ज्ञाति परम हितकारी ।
अजा सिर पर जाय तुम्हाशै ।


जिनका स्वभाव परोपकार करने का होता हैउन्हें चम्हे कितना भी कष्ट होवे परोपकार जिये बिना रह नहीं सकते । सहज स्वभाव को दुस्लाज बताया है । साथु पुरुष प्राय दूसरे कं सन्ताप हैं ही त्तन्तप्त हुआ कस्ते है 1 दूसरो के दुख से दुखी होना यही उन अखिलात्पा परम पुरुष परमात्मा की पस्साराघन हैं 
 
त्तप्यल्ले लोक तापेज साधव: प्रावशीजजा: ।
परआरग्धलं तजि १दुफषउरारित्रत्वात्मन।।
 
अठारह पुराणी का सार इन दो बातों में आ गया है । दूसरे का हित करने के समान कोई दूसरा पुण्य नहीं हैं ओर दूसरो को दुख देने के समान कोई पाप नहीं है ।-
 
अष्टादश पुदापोषु व्यासस्य वचनं हैंयानू।
पसोपकार: पुषयाय पापाय पर पीड़जम्।।
परहित सरिस धर्जजहीं आई।
पर पीडा सटा नहीं अधझाहँ । ।
 
 
 
परोपकार सेना भी सब क्रोइं श्री हाथ की बात नहीं है । जिन्ह रान्ती को भगवान ने जिस निमित्त इस धरा पर भेजा है यहीं त्तन्त परोपकार कर सकते हैं । क्योंकि उनका आना ही कंवल परोपकार कं लिए होता हैं ।

सन्त विष्य सरिता गिरि धरनी ।
परहित हैतुत्तबन्ह के करली । ।
पारस मे अरु सन्त ने त्तन्त अघिक का आजा
वह लोहा से सोजा करे यह कौ आप समाज ।।
संत उदय संतत सुखकारी ।
विश्व सुखद जिमि हन्दूतआशे । ।

 

सन्तो का अन्युदय सदा ही सुख कर होता है । जैसे चन्द्रमा और सूर्य का उदय विश्व भर के लिए सुखदायक है । महाराजश्री ने यह अनुष्ठान तैलधारावत अखण्ड 72 घन्टे का रखा जिससे एकमृ कुण्डस्ताक श्रोबिष्णु महायज्ञश्रीराम नाम संकोर्तनखंगीतमय श्रीरामचरितमानसश्रीमदभागवतादि पुराणश्वीमद भगपगीतादुगों सपाशतीश्रीमात्भीवि' प्रथम त्तगं भूलनामायपादि का अखण्ड परि; फाल्युन चुदी चौथ शनिवार बि. सं. 2034 से अष्टमी बुधवार तक चला 1 जिसमें प्रात्तद्रकाल गांव की प्रदक्षिणा राम नाम संकीर्तन करते हुएयझीय गक्तिजलअक्षतादि वस्तुओं से गांव का माजंनादि जिया गया । यह अनुष्ठान सानन्द सम्पन्न हुआ । तब से ग्राम में सब प्रकार से सुख शान्ति एवं सम्पत्ति की वृद्धि हो रही है । यज्ञ भगवान की कूपा से इस भौतिक संसार है ग्रामवासियों की सकामनिष्काम सभी प्रकार की इच्छाएँ पूर्ण हो रही है । इस यज्ञ महोत्सव से लोगों को अति लाभ एबं समृद्धि प्राप्त हुई कि श्रीमुरुदेघ से पुन यज्ञ महोत्सव कराने दो लिए प्रार्थना करने लगे । महाराजश्री ने इनकी प्रार्थना स्वीकार करकं पुत उसी प्रज्ञाब से द्वितीय श्रीविष्णु महायज्ञ का आयोजन ग्राम धौला ने फाल्युन बुदी द्वितीया दिसं. 2048 में हुआ ।
 

श्रीगायबी पुरश्चरण एवं à¤¨à¤µ कुगडात्मक महायज्ञ प्रिवेणीधाम में-

 
गायत्री को वेदमाता कहा है । यह सभी वेदों कौ जननी है । ब्रह्माजी ने तीनो वेदों में तो साररूप है एक-एक पाद निकाल कर इस त्रिपादी गायत्री क्रो बनाया है । द्विजातियों के लिए इससे बढ़कर दूसरा मंत्र नहीं हैं । इसीसे इसको द्विज बनाने बाली दूसरो माता कहा है । जिनके दो जन्म हो उन्हें द्विज कहते हैं । प्रथम जन्म तो माता कं उदर से बाहर होने को माना गया है और दूसरा जन्म गायत्री मंत्र की दीक्षा को कहा है । जन्म से मनुष्य शूद्र संज्ञा वाले हुआ करते हैं । किन्तु अपने अपने गिन्न-गिन्न संस्कल्यों दो कारण उनमे ब्राह्मणक्षत्रिय और वैश्य बन जात्तेहैं । कहा भी है   à¤¯à¤¥à¤¾…जज्मजाजावते शूद्र: संस्कारात् à¤¦à¥à¤µà¤¿à¤œ उच्यते ।
 
गायत्री द्विजों की माता कं समान रक्षा करती हैं । जो इसका गायन करता हैजा करता हैउसकी यह नाता दो समान सभी प्रकार कं दुखों से जाया करली हेइसीस्लै इसका नाम गायवी हैं । जायन्तं घावते यस्मात् आयवो रुवं तत: स्मृता । गायकी सभी ऋद्धिट्वेसिद्धिर्था को तथा परम पद को प्राप्त कराने वाली और समस्त मंत्रों को सआझी हैं । वेदों में मुख्यतया गायत्री सांसीयस्टट्यमझतीपपीकत्रिष्ट्रप और जगती ये रात छन्द प्रधान माने गये है । इनके अतिरिक्त अति जगत्तीएस्कॉरौ , अष्टात्यष्टीघृत्तिद्धातिवृति, कृत्तिप्रकृद्विआकूतिबिकृतिसंस्कूति अतिकांलेउत्दाले आदि और भी हैं । जिन्तु रात छन्द प्रधान हैं । उनमें गायत्री छन्द सबसे श्रेष्ट है [ भगवान् श्रीकृष्ण ने भी इसे अपनी बिभूति माना हैं- णावत्रीष्ठन्दसाअहभू । पता)

बैरो तो तीन पद चौबीस अक्षरों वाली वेदों में गायत्री चान बाली छन्द बहुत हैं किन्तु यह सायित्री रूपा गायत्री सभी देयों की जननी है । गायत्री का उपासक सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड पर विजय प्राप्त वनों सकता है । गायकी समस्त पापों का नाश करने में समर्थ हैं ' गायत्री प्राण स्वरूपा है । द्विजातियों का गायकी ही परम धन हैं ; गायत्री द्वारा ही द्विजों सृष्टि हुई है । ब्रहा प्राप्ति का गायत्री मुख है इसी से गायत्री की ब्रह्मभाव से उपासना करनी चाहिए । इसी बात को बताने वो लिए महाराजश्री ने साध शुक्ला पंचमी रविवार दिसं, 2034 को गायत्री मंत्र एबं श्रीराम मंत्र मुरश्चक्या
जपन्चग्रनुष्ठान प्रारम्भ करवाया । इसमें वेदझ विद्वान ब्राह्मण जो त्रिकाल संध्या करते थे । भूमि पर ही शयन संयम में रहते हुएगायत्री मंत्र का जप और परम श्रीबैष्णव ब्रह्मचारी संत श्रीराम मंत्र का जप करते थे । यह जप दो सो से अघिक ब्राह्मण और सत्त कस्ते थे } चतुथुरश्वस्या जप के दशांश हवन से नव




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